बहुत दिन हुए माँ को फोन किए, क्या करूँ समय ही नहीं मिलता है। सोचा था एक बार विदेश जाकर बस गया तो फिर चांदी ही चांदी होगी। जीवन में सभी ऐशो आराम, बड़ा घर लॉन वाला, साफ़ सुथरी सड़कें, गाड़ी-मोटर सब मिलेगा। कहने को तो यह सब भारत में भी मिल सकता है, लेकिन अमरीका की तो बात ही अलग है। वहाँ तो डॉलर में कमाई होगी, हर चीज की सुख सुविधा है वहां। भारत में कमाई तो होगी लेकिन डॉलर में नहीं और ऊपर से यहाँ का अस्त व्यस्त जीवन। कुछ भी तो सुनियोजित तरीके से नहीं होता भारत में। मुझे तो बस अमरीका जाकर बसना था चाहे जैसे भी हो और मैं आकर बस गया।
कितनी मुश्किलों से माँ ने पैसे का इंतज़ाम किया था। शहर का घर बेच डाला था और रहने के लिए गाँव वाले घर में चली गयी थी। कहती थी….मैं अकेली जान वैसे भी क्या करुँगी शहर वाले घर में अकेली रहकर, गाँव में रहूँगी तो कोई ना कोई तो दरवाज़े पर मिलने आता ही रहेगा मेरी टोह लेने।
जब तू अच्छी तरह से बस जायेगा अमरीका में तो ले जाइयो अमरीका अपनी माँ को। ज़रा मैं भी तो देखूं ऐसी क्या बात है विदेशों में, जो हर व्यक्ति अपना देश छोड़कर बाहर बसना चाहता है।
मैं हँसते हुए कहता था…..हाँ माँ एक बार ठीक से जम जाऊँ अमरीका में तो फिर तुझे आकर ले जाऊँगा। यही कहकर तो आया था अपनी माँ को। कई बार लौटना चाहा था लेकिन लौट ही नहीं पाया।
मनचाहे क्षेत्र में नौकरी नहीं मिलने के कारण कभी मैंने वेटर की नौकरी की होटल में तो कभी पेट्रोल पंप पर नौकरी करनी पड़ी। गुजारे के लिए जो काम मिलता गया, मैं वो बेझिझक करता गया। सारी झिझक, सारी शर्म तो मैं भारत छोड़ आया था। अच्छे से याद है….माँ ने घर में कभी झाड़ू तक लगाने नहीं दी थी। बस यही कहतीं थी….तू अपना पढ़ाई-लिखाई में ध्यान लगा, घर मैं संभाल लूँगी। बाबूजी के जाने के बाद घर को और मुझे उन्होंने ही तो संभाला था।
शुरू-शुरू मैं माँ को हफ़्ते में कम से कम 3 बार तो फोन करता था। मेरे फोन के इंतज़ार में वो सोती नहीं थी। हमेशा एक ही बात पूछती थी तूने खाना खाया कि नहीं, तेरी तबियत तो ठीक है ना?
मैं चाहे जिस भी परिस्थिति में होता, मैं एक ही बात कहता था…..मैं ठीक हूँ माँ, तुझे जल्दी लेने आऊँगा।
कुछ समय बाद मुझे मनचाही नौकरी मिल गयी। मेरी जिंदगी पटरी पर आने लगी। मैंने एक लॉन वाला घर खरीद लिया, गाड़ी भी ले ली। जिंदगी का एक उसूल है जितना वो आपको देगी, उससे दुगना वो आपसे वापिस ले लेगी। मेरी व्यस्तता बढ़ती चली गयी कुछ काम की वज़ह से और कुछ अधिक पैसे के कारण जीवन शैली में आए बदलाव की वज़ह से। फ़ोन अब कम करने लगा था, चंद मिनटों में मीलों की दूरियां मिटाने लगा था। खैर कम ही सही पर फ़ोन तो अब भी करता था माँ को और जब भी फोन करता वो हर बार एक ही बात पूछती थी….तू घर कब वापिस आएगा? मेरी तबियत ठीक नहीं रहती, तू जल्दी आ जा बेटा। उसकी आवाज़ में अब साँसों के फूलने की आवाज़ अधिक आने लगी थी, बड़ी बेचैनी सी सुनाई देने लगी थी उसकी आवाज़ में।
चाहे कितना भी विदेशी बन जाऊँ बाहर से लेकिन दिल से तो रहूँगा भारतीय ही। जिस तरह माँ बेचैन थी मुझसे मिलने के लिए, वैसे ही बेचैनी मेरे दिल में भी उठने लगी थी। अचानक से संवेदनाओं का ज्वारभाटा मन में उठने लगा था। शायद मेरे भीतर की आत्मा जीवित होने लगी थी। मेरी आँखों के आगे माँ का चेहरा घूमने लगा था। ऐसा लग रहा था जैसे घर की चौखट पर बैठी हुई इंतज़ार कर रही है, पथराई हुई आँखों से बार-बार बाहर की ओर देख रही हो।
कितना बड़ा कलेजा होगा मेरी माँ का, जो मुझे हँसते हुए जाने दिया था विदेश। उसने मुझे रोकने के लिए ना कभी अपने दूध का वास्ता दिया ना आंसुओं से रोकने की कोशिश की। बस माँ एक ही बात कहती थी…..तू बाहर जाना चाहता है जा, लेकिन वापिस ज़रूर लौट आना, अपनी मिट्टी में ही मिलकर मुक्ति मिलती है इंसान को।
उसकी अपनी कोई ख़ुशी थी ही नहीं बस मुझे खुश होते देख ही वो खुश हो लिया करती थी।
मेरी माँ की याद आने लगी थी मुझे। मैंने फैसला कर लिया था भारत जाने का। मैंने जानबूझकर माँ को फोन पर भारत आने के बारे में नहीं बताया यह सोचकर कि अचानक से पहुँचकर माँ को चौंका दूँगा। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मँजूर था। घर पहुंचा तो आँगन में पड़ोसियों की भीड़ लगी थी। गाँव की औरतें विलाप कर रहीं थी और पुरुष बतिया रहे थे…..बेचारी लड़के का इंतज़ार करते-करते मर गयी। कितना फोन लगाया था रामचरण के लड़के ने उसे लेकिन उसका फोन ही नहीं लगा। अब इसका अंतिम संस्कार कौन करेगा?
भीड़ को चीरता हुआ घर में घुसा तो माँ जमीन पर लेटी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे शांति से सो रही हो। उसकी आँखें बंद थीं, चेहरे पर बेहद सुकून था। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी आत्मा को मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया था। मैंने माँ के चरण स्पर्श किए और मन ही मन अपने देर से आने की माफ़ी मांगी। विधिपूर्वक माँ का दाह संस्कार किया। रात को अ की फोटो को सिरहाने के पास रखकर सो गया।
गाँव में माँ के जाने के बाद भी अकेलापन महसूस नहीं हुआ। कोई ना कोई हमेशा घर आता रहता था हालचाल पूछने के लिए। पड़ोस वाली चाची खाना बनाकर ले आती थी। काफी दिन बीत गए थे गाँव में रहते हुए, छुट्टियां खत्म होने को आयीं थी। मन दुविधा में था। एक मन कह रहा था यहीं गाँव में रहकर कुछ करने का और दूसरा मन कह रहा था अमरीका जाने के लिए। आखिर में निर्णय लिया कि माँ से पूछुंगा। रात को सोते समय माँ की तस्वीर को हाथ में लिया और उन्हें अपनी दुविधा बतायी। माँ ने चुटकियों में मेरी समस्या सुलझा दी। माँ ने कहा…..अब लौट आया है तो यहीं रुक जा, अपने गाँव के लिए कुछ कर। तेरे बाबूजी पाठशाला खोलना चाहते थे बच्चों के लिए लेकिन आकस्मिक मृत्यु के कारण उनका वो सपना अधूरा रह गया, अब उसे तू पूरा कर।
मैं गाँव में ही बस गया और बाबूजी के सपने को पूरा करने में लग गया। मेरी माँ अब भी मेरे साथ थीं दुआओं के रूप में।
Seema Priyadarshini sahay
03-Dec-2021 01:37 AM
बहुत खूबसूरत
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Raghuveer Sharma
03-Dec-2021 12:15 AM
nice
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Amir
03-Dec-2021 12:14 AM
Very nice
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